जैन धर्म में अहिंसा को सबसे प्रमुख स्थान दिया गया है | यह अहिंसा का सिद्दांत केवल कर्मों तक सीमित नहीं है अपितु इसे भावों एवं आत्मा के स्तर पर समझाया गया है| आज हम में से बहुत लोग जैन कुलनाम का प्रयोग तो करते है परन्तु जैन सिद्दांतों को आत्मिक व वैचारिक स्तर पर धारण नहीं कर पाते | आचार्य सुशील मुनि जी एक ऐसे तपस्वी साधू थे जिन्होंने ना केवल इन नियमों को अपने कर्मों एवं भावों में उतारा बल्कि बहुत सारे अन्य जीवों को में इस मार्ग पर चलने का रास्ता दिखाया |
आचार्यश्री के अनुसार अहिंसा नियम का पालन करना मन में प्राणी मात्र के प्रति प्रेम भाव उत्पन्न हुए बिना असंभव है | इसीलिए अहिंसा के मार्ग की पहली व आखिरी सीढ़ी प्रेम भाव ही है | आज हम सभी किसी ना किसी से प्रेम करते हैं | कोई अपने माता-पिता से तो कोई अपनी पत्नी-बच्चों से या पालतू जानवर से | क्या इसे अहिंसा मार्ग पर चलना मान सकते हैं और क्या ऐसा करने से हमें शांतिपूर्ण ठंग से मुक्ति मिल सकती है ? आचार्य श्री ने इस विषय पर विस्तार से चर्चा करते हुए कहा है कि प्रेम भाव किसी व्यक्ति-विशेष या संप्रदाय-विशेष तक सीमित ना रहकर प्रत्येक रंग, भेद, पद्दति, विचार के हर छोटे बड़े जीव के प्रति होना चाहिए | यह प्रेम केवल सगे-सम्बन्धियों तक नहीं बल्कि हर कण-कण से होना चाहिए | जब ऐसा प्रेम हमारे रग-रग में उपस्थित होता है तो हमारे बैरी भी हमारे हितैषी बन जाते है | जब आप किसी भी प्रकार के राग द्वेष ईर्ष्या भय क्रोध मान माया लोभ से ग्रसित हुए बिना प्राणी मात्र से प्रेम करते हैं तो आप उनके परमाणुओं से आत्मिक स्तर पर जुड़ जाते हैं और आपने भाव-व्यक्तिव्त्व से उस प्राणी को मानसिक एवं शारीरिक रूप से प्रभावित कर पाते हैं |
प्रेम एक अभूतपूर्व शक्ति होती है| यह श्राप को भी वरदान में परिवर्तित कर सकती है | आचार्य श्री ने प्रेम भाव के एक ऐसे ही उल्लेख भगवान् महावीर के जीवनकाल के एक उदाहरण से दिया| जब चंडकौशिक नामक क्रोधी विषैले सर्प ने भगवान् को काटा तो भगवान के शरीर से करुणा और दयावश रक्त के स्थान पर दूध निकलने लगा | ऐसा प्रेम जब हम अपने मन में धारण करे तो अपने आप ही हमारी काय चमत्कारमयि हो जाती है | एक अहिंसा मार्गी के लिए ऐसी करुणा और ऐसा प्रेम भाव अति-आवश्यक है |
जब किसी शिष्य ने गुरूजी से पुछा की क्या ऐसा प्रेम भाव संभव है तो गुरूजी ने बहुत ही सरल स्वभाव से उत्तर दिया की क्षमादान और तठस्ता विचारों से ऐसा प्रेम संभव है | जब हम ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा, गोरा-काला और अच्छा-बुरा की व्याकरण से ऊपर उठकर सभी जीवों से जुड़ते हैं तो अपने आप ही प्रेम भाव की उत्पत्ति होती है |
शायद इसलिए आचार्य श्री ने सार्वभौमिक प्रेम की दर्शन को आगे बढ़ाते हुए एक नयी संस्था की स्थापना की और उसका नाम विश्व अहिंसा संघ रखा |
आज मुझे बहुत हर्ष है कि जो बीज आचार्य श्री ने बोया था अब वो एक बड़े पेड़ के रूप में विकसित हो चूका है | अहिंसा पुस्तकालय, अहिंसा भोजनालय, अहिंसा विकलांग सहायता समिति इसके कुछ उल्लेखनीय कार्य है जिसकी प्रशंसा चहुंओर हो रही है | इन सभी कार्यों की सफलता का श्रेय आचार्य श्री के अहिंसा, प्रेम, क्षमा एवं करुणा के सम्बन्धों को आत्मिक एवं वैश्विक स्तर पर समझाना है | उनके उपदेशों ने संपूर्ण विश्व को एकसूत्र में बाँधने का पुरजोर प्रयास किया है
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